जनता 5 साल के लिए सरकार चलाने के लिए अपने प्रतिनिधि चुनकर भेज देती है। ये बड़ी गहन विचार करने योग्य विषय है कि आखिर इस तरह के मुद्दे चुनावों के बाद क्यों उभर जाते हैं? इसे लोकतात्रिक व्यवस्था में खामी ही कहना होगा कि चुनाव जीतने के बाद चुने हुए जनप्रतिनिधियों के छुपे हुए राजनैतिक महत्वाकांक्षा जनता के सामने आती है। चुनाव जीतकर सिर्फ जनता के हितों की रक्षा की दिशा में सरकार को कार्य करना चाहिए। लेकिन कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोरोना महामारी के इस दौर में भी चुने हुए जनप्रतिनिधि कोई जैसलमेर की होटलों में, तो विधायकों का दूसरा धड़ा हरियाणा के रिसोर्ट में, तो अन्य दलों के देवस्थान दर्शन के नाम पर विधायक गुजरात में भेज दिए जाते हैं। क्या इन चुने हुए जनप्रतिनिधियों के इन सब कारनामों से जनता का भला होने वाला है? आखिर ये सब क्या हो रहा है और जनता मूकदर्शक बनी हुई रहती हैं? मीडिया लोकतात्रिक व्यवस्था के इस नंगे नाच को पैसे लेकर दिखाता है और जनता सिर्फ सतही जानकारी होने की वजह से कुछ समझ ही नहीं पाती है। दरअसल ये लोकतात्रिक व्यवस्था के नाम पर जनता के साथ मजाक चल रहा है।
हमारे लोकतंत्र में खामियां हजारों की संख्या में है। लेकिन उन खामियों को दुरुस्त करने की नैतिक जिम्मेदारी जनता द्वारा अपने जनप्रतिनिधियों को चुनावों के माध्यम से सौंपी जाती हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि जनप्रतिनिधियों को अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए जनहित कहीं नजर ही नही आता है।
जनप्रतिनिधि अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा, सत्ता को कब्जे में रखने के लिए संवैधानिक व्यवस्था के मूल्यों का अवमूल्यन करके भी सत्ता की ऊंची कुर्सियों पर बने रहने की चाहत में जनता के प्रति उनकी जवाबदेही को जानबूझकर भूल जाते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि जनता को भी लोकतात्रिक व्यवस्था में अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों का अहसास तक नहीं है। और इसके गम्भीर नतीजे एक लोकतात्रिक समाज के रूप में जनता को चुकाने पड़ते हैं जब नेता रिसोर्ट पॉलिटिक्स का सहारा लेते हैं। आप सोचते होंगे कि सिस्टम ही ऐसा है तो अब क्या कर सकते हैं? जी नही बहुत कुछ किया जा सकता है। भारत के संवैधानिक दायरे में रहकर ही इस लोकतात्रिक प्रणाली में बदलाव करके जनप्रतिनिधियों को नही, बल्कि जनता को सही मायनों में ताकतवर बनाने की जरूरत है।
स्वस्थ रहें, जागरूक रहें। जय हिंद।