Tuesday, 11 August 2020

जनता और भारतीय लोकतंत्र

 10 जुलाई को राजस्थान पुलिस के विशेष कार्यबल (SOG) ने राज्य में विधायकों की खरीद-फरोख्त और निर्वाचित सरकार को अस्थिर करने के आरोपों में एक मामला दर्ज किया था। SOG पुलिस बल का ही एक अंग होने के नाते गृहमंत्री के अधीन कार्य करती है। और राजस्थान के मुख्यमंत्री ही गृहमंत्री का कार्यभार संभाल रहे हैं। तो ऐसे में ये स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री के इशारे पर ही राज्य के मुख्यमंत्री ,उपमुख्यमंत्री, और सरकार के उप मुख्य सचेतक को ये नोटिस थमाए गए थे। शायद लोकतात्रिक भारत के इतिहास में इस तरह का ये पहला वाकया था जब पुलिस विभाग के मुखिया ने ही स्वयं तथा उपमुख्यमंत्री को बयान देने के लिए नोटिस दिया था। इस तरह के नोटिस जारी होने पर मीडिया और जनता में एक तरह से कौतूहल का माहौल बन गया था। मीडिया और जनता सब अपने अपने तरीके से सरकारी कार्यप्रणाली पर चर्चा कर रहे थे। कुछ लोग इसे राजनीतिक पैतरेबाजी मान रहे थे तो कुछ राज्य सरकार के अस्तित्व पर आने वाले संकट की आहट बता रहे थे। दरअसल राज्य में राज्यसभा चुनाव से पहले सत्तारूढ़ कांग्रेस के कुछ विधायकों को प्रलोभन दिए जाने का आरोप स्वयं मुख्यमंत्री ने लगाया था। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा था कि राज्यसभा सीट जीतने के लिए विधायकों को विरोधी दल द्वारा प्रलोभन दिया जा रहा है करोड़ों रुपये कैश जयपुर ट्रांसफर हो रहा है। इस तरह के खुले आरोप लगाने से जाहिर होता है कि मुख्यमंत्री को शक हो गया था कि राज्यसभा सीटों के चुनाव के साथ साथ विरोधी दल उनकी सरकार को भी हटाने के लिए मोहरें बिछा रहे हैं। ऐसे में अपने ही राजनीतिक दल के युवा माने जाने वाले करिश्माई नेता सचिन पायलट के महत्वाकांक्षी इरादों को ध्वस्त करने के लिए मंझे हुए खिलाड़ी और राजनीतिक दांवपेंच के जादूगर अशोक गहलोत ने SOG का इस्तेमाल किया था। इसे सीधे सीधे सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग कहा तो जा सकता है लेकिन साथ ही कानूनी तौर पर असंवेधानिक नही कहा जा सकता है। क्योंकि लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अपने खिलाफ ही जांच का आदेश देने की दलील भी दी जा सकती है। और लोकतंत्र में चुने हुए जनप्रतिनिधियों की चुनी हुई सरकार द्वारा लिया गया हर निर्णय, चाहे वो आपसी राजनीतिक मनमुटाव या अन्य कारणों से लिया गया हो, लेकिन हमेशा उसे जनहित से प्रेरित लिया गया फैसला ही माना जाता है। 

जनता 5 साल के लिए सरकार चलाने के लिए अपने प्रतिनिधि चुनकर भेज देती है।  ये बड़ी गहन विचार करने योग्य विषय है कि आखिर इस तरह के मुद्दे चुनावों के बाद क्यों उभर जाते हैं? इसे लोकतात्रिक व्यवस्था में खामी ही कहना होगा कि चुनाव जीतने के बाद चुने हुए जनप्रतिनिधियों के छुपे हुए राजनैतिक महत्वाकांक्षा जनता के सामने आती है। चुनाव जीतकर सिर्फ जनता के हितों की रक्षा की दिशा में सरकार को कार्य करना चाहिए। लेकिन कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोरोना महामारी के इस दौर में भी चुने हुए जनप्रतिनिधि कोई जैसलमेर की होटलों में, तो विधायकों का दूसरा धड़ा हरियाणा के रिसोर्ट में, तो अन्य दलों के देवस्थान दर्शन के नाम पर विधायक गुजरात में भेज दिए जाते हैं। क्या इन चुने हुए जनप्रतिनिधियों के इन सब कारनामों से जनता का भला होने वाला है? आखिर ये सब क्या हो रहा है और जनता मूकदर्शक बनी हुई रहती हैं? मीडिया लोकतात्रिक व्यवस्था के इस नंगे नाच को पैसे लेकर दिखाता है और जनता सिर्फ सतही जानकारी होने की वजह से कुछ समझ ही नहीं पाती है। दरअसल ये लोकतात्रिक व्यवस्था के नाम पर जनता के साथ मजाक चल रहा है। 

हमारे लोकतंत्र में खामियां हजारों की संख्या में है। लेकिन उन खामियों को दुरुस्त करने की नैतिक जिम्मेदारी जनता द्वारा अपने जनप्रतिनिधियों को चुनावों के माध्यम से सौंपी जाती हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि जनप्रतिनिधियों को अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए जनहित कहीं नजर ही नही आता है।

 जनप्रतिनिधि अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा, सत्ता को कब्जे में रखने के लिए संवैधानिक व्यवस्था के मूल्यों का अवमूल्यन करके भी सत्ता की ऊंची कुर्सियों पर बने रहने की चाहत में जनता के प्रति उनकी जवाबदेही को जानबूझकर भूल जाते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि जनता को भी लोकतात्रिक व्यवस्था में अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों का अहसास तक नहीं है। और इसके  गम्भीर नतीजे एक लोकतात्रिक समाज के रूप में जनता को चुकाने पड़ते हैं जब नेता रिसोर्ट पॉलिटिक्स का सहारा लेते हैं। आप सोचते होंगे कि सिस्टम ही ऐसा है तो अब क्या कर सकते हैं? जी नही बहुत कुछ किया जा सकता है। भारत के संवैधानिक दायरे में रहकर ही इस लोकतात्रिक प्रणाली में बदलाव करके जनप्रतिनिधियों को नही, बल्कि जनता को सही मायनों में ताकतवर बनाने की जरूरत है। 

स्वस्थ रहें, जागरूक रहें। जय हिंद।


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