Saturday, 17 March 2018

विश्व प्रसिद्ध निवेशक वारेन बुफे के जीवन से हम क्या सिख सकते है?


विश्व प्रसिद्ध निवेशक वारेन बुफे के जीवन से हम क्या सिख सकते है?

वारेन बुफे अमेरिका के 87 वर्षीय नागरिक है तथा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त निवेशक तथा बर्कशायर हाथवे के मुख्य कार्यकारी अधिकारी है I इनका जन्म 30 अगस्त 1930 को अमेरिका के ओमाहा शहर में हुआ था I वारेन बुफे का जीवन किसी रोलरकोस्टर राइड से कम नही रहा है और अपने निवेश करने के कला तथा सिधान्तो के आधार पर इन्होने 100 डॉलर से शुरुआत करके आज अपने आपको विश्व के सबसे धनी व्यक्तियों की सूचि में शुमार किया है और आज वे विश्व में तीसरे सबसे अमीर व्यक्ति है. इतने प्रेरक व्यक्तित्व के बारे में जानना बहुत प्रेरनादायी होगा और वे इतने अमीर कैसे बने और जीवन में इतने सफल कैसे हुए ये जानने के लिए आप इस पोस्ट को अंत तक जरुर पढ़ें.

वेसे उनका जन्म एक राजनितिक परिवार में हुआ था और परिवार में पैसे की कोई कमी न होने के बावजूद भी पार्ट टाइम सेल्समेन के रूप में उन्होंने काम किया और कई अलग अलग सामान डोर टू डोर घुमकर बेचे थे. युवावस्था में पार्ट टाइम जॉब्स से हुयी आय से उन्होंने कई और आय के श्रोत तैयार कर लिए थे. जैसे सिक्के डालकर वजन बताने वाली मशीन लगाना, पेपर और पत्रिकाए बेचना, नौकरी करना इत्यादि. उन्होंने इस बात को बहुत ही कम आयु में समझ लिया था की अमीर बनने के लिए एक मात्र आय का श्रोत काफी नही होता है. पैसा बनाने के लिए पैसे को इस्तेमाल करने की कला का इस्तेमाल किया और सफल होते गए. उन्होंने ११ वर्ष की उम्र में पढाई लिखाई के अलावा अपने माता पिता के विरोध करने के बावजूद शेयर बाज़ार में दिलचस्पी की वजह से विभिन्न कंपनियों के शेयर में निवेश करना शुरू कर दिया था तथा १५ वर्ष की आयु में अपनी बचत के पैसो से ४० एकड़ जमीन खरीद ली थी और सौदेबाज़ी के पक्के खिलाडी बन गए थे. 

हालाँकि १५ वर्ष जैसी कम आयु में जमींन खरीदने जैसी सोच ही विकसित नही होती है. लेकिन उन्होंने एसा कर दिखया था. युवास्था में जमींन में निवेश नही कर पाने की गलती का अहसास काफी बाद में होता है. कुछ एसा अहसास मुझे भी होता है. मगर एसी गलतियो से बचना चाहिए. अगर आज के समय में युवा उम्र में जमींन खरीदने का अवसर किसी को मिलता है तो कभी नही खोना चाहिए क्युकी पूरी जिंदगी आगे होती है और एक बहुत बड़ा काम काम आप जरुरत से पहले ही कर चुके होते है. खैर आज बात सिर्फ वारेन बुफे के बारे में ही करेंगे. ३५ वर्ष की आयु तक वे $ ४५ मिलियन डॉलर का इन्वेस्टमेंट फण्ड कण्ट्रोल कर रहे थे जिसका मात्र ५ प्रतिशत उनका था और उन्होंने 1951 से 1954 तक बुफे-फाक & कंपनी, १९५४ से १९५६ तक ग्राहम नेव्मन कॉरप में काम किया और १९५६ से १९६९ तक बुफे पार्टनरशिप लिमिटेड बनाकर काम किया. साथ ही उन्होंने एक साथ ७ और पार्टनरशिप कंपनियों को चलाया और उसके बाद उन्होंने बर्कशायर हाथवे में काम करना शुरू किया था और इस दौरान उन्होंने उसमे तथा दूसरी कंपनियों में निवेश करना जारी रखा और नतीजन आज तक के दुनिया में सबसे सफल निवेशक है और अपनी कंपनी के मुख्य कारकरी अधिकारी भी है.  उन्होंने कर चोरी जैसे काम भी कभी नही किये और अपने जीवन में हमेशा पूरा कर चुकाया है. ये इस बात को साबित करता है की अमीर बनने के लिए टैक्स चोरी करना जरुरी नही है. भारत में इस तरह के आदर्श निवेशक और व्यापारी खोजने पर भी नही मिलेंगे. क्युकी मानसिकता ही एसी बन चुकी है जो सुधरने नही देती. वर्तमान में नीरव मोदी और माल्या जैसे लोगो ने पुरे विश्व में भारत की शाख को चुना लगाया है.

उन्होंने बर्कशायर हाथवे को एक कपडा मील से एक बहुत बड़े उद्योग समुह के रूप में स्थापित किया है एवं ६७ दूसरी कंपनियों के अधिकार उनके पास हैं. करीब ३ लाख से ज्यादा कर्मचारी उनके समूह में काम करते है. वारेन बुफे की  वर्तमान सम्पति करीब 100 बिलियन डॉलर्स है और सबसे बडी बात तो ये है कि अपनी 99 प्रतिशत सम्पति मानव मात्र के कल्याण के लिए दान कर दी है. है ना वाकई कमाल की बात. पूरा जीवन अपने दम पर पैसा बनाकर इतनी बड़ी कंपनी खड़ी करके लाखो लोगो को रोजगार दिया और अंत में अपनी सारी कमाइ का 99 प्रतिशत हिस्सा भी दान करना कोई साधारण काम नही है.

एक अमेरिकी मीडिया रिपोर्ट के अनुसार किसी जीवित व्यक्ति के जीवन पर सबसे ज्यादा किताबे अमरीकी राष्ट्रपति तथा दलाईलामा के अलावा वारेन बुफे के जीवन पर लिखी गयी है तथा उनके जीवन पर पूरी दुनिया भर में अलग अलग भाषाओ में अनुवादित किताबो की संख्या का अनुमान लगाना भी मुश्किल है. कई फिल्मे भी उनके जीवन पर बनी है. एक डोकुमेंट्री फिल्म की लिंक दे रहा हूँ आप इस पर क्लिक करके उसे देख सकते है. https://www.youtube.com/watch?v=RYHPlLsdW0A

वारेन बुफे ने किसी एलेक्टोनिक गजट (वस्तु) का इस्तेमाल कभी नही किया था और आज भी उनके पास कोई लैपटॉप या कंप्यूटर नही है फिर भी आज से १५ साल पहले सोशल मीडिया नाम का कुछ नही था लेकिन आज का जमाना सोसिअल मीडिया का है. और युवा पीढ़ी का ध्यान भटकाने के लिए ये काफी है. एक सर्वे के अनुसार सफल लोग सोशल मीडिया का सकारात्मक तरीके से इस्तेमाल करते है या वे हुत  बहुत कम इस्तेमाल करते है. सोशल मीडिया की वजह से आज की पीढ़ी को सब कुछ रेडीमेड मिल रहा है नतीजन उनमे क्रिएटिविटी (रचनात्मकता) ख़तम हो रही है. इतनी टेक्नोलॉजी और सुख सुविधाओ के ज़माने में एक दुसरे से सहमत होने के बजाय असहमत होना फैशन बन गया है और ये ही फैशन सोशल मीडिया का इस्तेमाल सकारात्मक चीजो की बजाय नकारत्मक चीजो के लिए प्रेरित करता है. इसके दूरगामी परिणाम भी अति दुखद ही होंगे. सोशल प्लेटफार्मस पर राजनितिक बहस, धार्मिक कट्टरता जैसी चीजो को ज्यादा तवज्जो न देकर तथा इनसे दूर रहकर दूरगामी सोच के साथ काम करे वो ज्यादा जरुरी है जिससे आपका तथा आने वाली पीढियों का भविष्य संवर सके ताकि शायद आप में से ही कोई उन्हें पीछे छोडकर भारत का नयी पीढ़ी का वारेन बुफे बन सके. राकेश झुन्हजुनवाला को आज के भारत का वारेन बुफे कहा जाता है.

हंसते रहें. खुश रहें. स्वस्थ रहें.

आपके कमेंट्स का इंतज़ार रहेगा.
  



Thursday, 8 March 2018

India's Military Expenditures: Should India Sign Foreign Deals For Supply Of Secondary Use Equipments for services?


India’s latest defence deal: the Deep Sea Rescue Vessels, its debatable need and cost    
 
India’s latest defence deal with Swedish firm for supply of two Deep Sea Rescue Vessels for Indian navy is projected at 200 Million UK Pound Sterling. If we convert this sum into Indian rupee than it is corresponding to INR 2000 crore. It is a big sum. Isn’t it? Though, the deal is linked with India’s defence preparedness in considerably worldwide appalling circumstances. Therefore, nobody have paid much attention towards it and observed it as usual defence transaction for national significance. However it is deplorable that such a huge sum is being utilized for acquiring recovery vessels for potential peace time tragedies relating warships and submarines of Indian navy. The DSRVs are not the operational equipments in nature hence they will play no role in operation activities of Indian navy and after induction in navy they will solely be used for salvaging purpose. The acquisition of DSRVs through very highly priced contract will prove entirely redundant for Indian navy in times to come. Therefore it is reasonably expected to debate about its need for Indian navy at such a high cost at this point in time when country needs funds for social causes as well. Can the cost of DSRVs be justified with their intended utilization? What could be indigenous alternative possibilities for DSRVs? Can India develop such equipments indigenously? India is developing aircraft career category warships at our own shipyards and marching towards self reliance in defence sector than why can’t nation develop such equipments under ‘’make in India mission’’? These are few smoldering questions associated with this deal.

   According to naval reports, underlying intention for acquiring DSRVs was to include modern equipment in its flotilla for recuperation purpose in case of peace time disasters involving warships and submarines of Indian Navy. The navy’s justification for acquiring high cost DSRVs is a questionable subject. Presently, navy is operating few traditional platforms for rescue and salvaging purpose for any peace time adversity. The Indian navy could have developed modern salvaging vessels indigenously with much lower cost in India’s own shipyards. The Defence Research and Development Organization could have been assigned responsibility of designing and developing a concept for construction of a modern vessel for the similar function. The operational commitments of Indian Navy are crystal clear and are fulfilled by its warships, submarines and marine aircrafts. The presence of DSRVs in its fleet will barely play any constructive role to make any sea-change in Indian navy’s combat preparedness as these equipments are supporting in nature.

There were very few peace time disasters in navy’s history since independence which also implies that such equipments will scarcely be used during their whole life span. The navy’s efforts and focal point must be based on ‘’prevention is better than cure’’ theory and  ensure high standard of operational and maintenance practices for its assets to avoid occurrences of peace time disasters. The Indian Navy must understand that having advanced equipment for salvaging purpose will not make it accident-free organization. There is no enemy threat in peace times and still such accidents takes place from time to time, than as a thumb rule it must be measured to upgrade and develop more advanced guidelines and operating policies. The naval establishments must find the ways to prevent the peace time tragedies, rather than buying costly equipments for recovery of chattels subsequent to each tragedy. The potential peace time disasters can be prevented by following proper SOPs and apt maintenance of equipments and naval assets. The human resources division is a neglected part in armed forces. The navy is also facing severe man-power shortage since the majority of its workforce is leaving service on completion of their initial engagements due to topsy-turvy and atrocious work ambiance. The maintenance and operations of these equipments will also require separate manpower allocation which will also put extra burden on frontline sea-going units. The navy need not to overlook root causes for peace time disasters and also must accept the fact that having incompatible process for crew training, lack of proper SOPs in place, being imperfect in requisite revision of SOPs, adherence to SOPs, human psychological behavior of personnel and inability to provide excellent work environment for recruits are main reasons for occurrence of such catastrophes. It is mediocre that establishments have felt necessity of DSRVs but they have turned blind eye to prime causes which are actually responsible for occurrence of peace time tragedies. By ignoring factual reasons and straightway jumping to the conclusion of buying equipments like DSRVs is an imprudent assessment. As a Naval Veteran, I hold a view that when militaries around the world are growing and increasing their technological standards. Hence, Indian Armed Forces also must have latest technologies and military equipments for their inclusive upgrading so that peace and tranquility in region is maintained in contemporary periods. However, foreign defence deals must be acceptable for acquiring modern weapons, sensors and equipments which can augment military capabilities and competence of defence forces. The signing of foreign deal for supply of non-operational highly expensive equipments designed exclusively for recuperation purpose for peace time disasters should never be a judicious preference for any developing country like us.  Mitigating such deals should also be seen as an act of morally erroneous. The acquiring costs for such equipments are too high for an emerging country like India at this point in time and if requirement is felt vital for such equipments then substitute of such equipments must be developed indigenously.  

In the midst of government’s make in India initiatives, occurrence of extremely expensive foreign deal for supply of equipments for no significance assignment in operational functions of Indian navy is also imbalanced. The defence services and bureaucrats assigned with task of national defence need to distinguish between operational prerequisite and follow-on necessities of defence services. It is rather miserable that defence establishments are action-packed in getting such contemptible defence deals approved by the government. The regime must find avant-garde ways to keep a check on financial expenditure of defence budget since such deals put intense financial burden on the country and tax payers as well. The governments must ensure that there must be a matter-of-fact justification for every foreign defence deal. The government needs to perform proportional analysis of each defence deal for its advantages and utilization of equipments being acquired for armed forces.

As an independent and democratic nation, India must continue to strive for healthy relations with its neighboring countries to reduce apprehensions amongst nations. If India succeeds in maintaining affable relations with them than governments can gradually trim down spending on defence budget to facilitate spending sufficient money on various social causes for benefit of general public of India. Not to forget, as a developing nation, India is facing numerous significant collective issues where funds allocation is necessary to overcome from such concerns. Conversely, turning blind eyes to relevant social causes and frittering away colossal funds on extraneous defence deals is serving no purpose and ultimately will be responsible for disparity in overall development of the nation.


Prakash Chandra Bishnoi, PO (Retd), IN


बेलगाम भारतीय नौकरशाही

              बेलगाम नौकरशाही  भारत के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल ने नौकरशाही को देश का "Steel Frame कहा था । लेकिन समय के साथ वो "...