Monday, 14 December 2020

खेजड़ली धाम, जोधपुर – एक असाधारण वृतान्त

 

कई सालों बाद आज एक ऐसे ऐतिहासिक, अदभुत, रमणीक, पवित्र, और पृकृति के बेहद करीब अपनी पहचान रखने वाली जगह लौटकर मैंने अपने आपको धन्य महसूस किया I ये जगह कोई राजा रजवाड़ों की ऐशो आराम की जगह नही बल्कि मानव इतिहास में त्यांग और बलिदान का ऐसा उदाहरण है जिसका समूचे विश्व और मानवजाति के इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नही मिलता है I पृकृति को अपनी जान से ज्यादा प्यार करने वाले अपने समाज के पूर्वजों की शौर्यगाथा को अपने दिलोदिमाग में संजोये हुए जब आज खेजड़ली गाव की मिटटी पर पहला कदम रखा तो ऐसे अतुलनीय बलिदानियों के स्मरण ने अनायास ही मुझे उस मिटटी को चूमने को प्रेरित किया खेजड़ली में पहुंचकर मुझे ये अहसास बार बार हो रहा था कि ये कोई साधारण मिटटी नही है I इस मिटटी में तो मेरे समाज के बलिदानी महापुरुषों की मोहक यादें शामिल है जिन्होंने हरे वृक्षों की रक्षा की खातिर अपना जीवन ख़त्म करना भी सस्ता सौदा मानकर अपने प्राणों का बलिदान दे दिया लेकिन जीते जी हरे पेड़ कटने नही दिए I सेकड़ों वर्ष पहले अपने जीवन का बलिदान करने वाले बिश्नोई समाज के उन महान बलिदानियों के निर्जीव शरीर आज वहां की मिटटी में मिलकर उस गाव की मिटटी के पवित्र बन जाने का कारन बन चुके थे I ऐसी पावन धरा पर बने शहीद स्मारक की मिटटी को अपने सीश पर तिलक के रूप में लगाने से अपने आपको रोक नही पाया I दोस्तों, मैं कहानी बयाँ कर रहा हूँ एक छोटे से गाव जो कभी खेजड़ली नाम से जाना जाता था की, जो अब एक साधारण गाव नही बल्कि पवित्र खेजड़ली धाम, जोधपुर के नाम से विख्यात है I   

सर्द हवाओं के बीच, सुबह नौ बजे, जोधपुर से करीब २० किलोमीटर दक्षिण पूर्व की तरफ बसे हुए खेजड़ली धाम के लिए हमने यात्रा शुरू की I मेरे साथ मेरी अर्धागिनी और मेरा छोटा बेटा था. जोधपुर का दक्षिण पूर्व शहरी इलाका  सेन्य छावणी क्षेत्र है और यहाँ के आसमान में अमूमन हर दिन वायुसेना के गगनभेदी आवाज करने वाले जंगी विमानों को उड़ते देखा जा सकता है I झालामंड इलाके को पार करते हुए कुछ ऐसे ही गगनभेदी आवाज वाले जंगी विमान हमारे बेहद कम ऊँचाई से उड़ते नजर आये थे I मेरे ७ वर्षीय बेटे के लिए ये बेहद रोमांचित करने वाला दृश्य था I हमारी गाड़ी सर्द हवाओं को चीरते हुए हमें पवित्र खेजड़ली धाम की ओर बढा रही थी. सडक के दौनों ओर खेतों में कहीं कहीं गेहूं की फसल तथा सब्जियां उगाई हुयी नजर आ रही थी I सडक के दोनों तरफ सेंड स्टोन से बने हुए आकर्षक मकान, उनके पास खड़ी सफेद कारें तथा ट्रक जैसी बड़ी गाड़ियाँ इलाके में रहने वाले लोगों के साधन सम्पन होने की गवाही दे रही थी I रास्ते में  हमने देखा कि खेजड़ली धाम के आसपास के ग्रामीण इलाकों में बसने वाले बिश्नोई समाज की महिलाओं के जत्थे अपने हाथों में बाजरी और घी लिए हुए श्रधानवत सडक के किनारे पैदल चलते हुए ही शहीदी स्थल की तरफ बढ़ रहे थे I पैदल चल रही महिलाओं के कुछ जत्थे भजन गाते नजर आ रहे थे तो अन्य जत्थे शायद बातूनी थे जो बातों में मशगुल होकर आगे बढ़ रहे थे लेकिन सभी महिलाओं के हाथों में पक्षियों के लिए चुग्गे के लिए बाजरी के दानों की गठरी और शहीदी स्थल पर यज्ञ में आहुति देने के लिए घी साथ में लेकर जाना सभी के इस धाम के प्रति गहरी श्रधा को दर्शा रहा था I

बिश्नोई धर्म के सस्थापक श्री गुरु जाम्भोजी ( 1451-1536 ) ने अपने अनुयायियों को अमावस्या के अवसर उपवास की सीख दी थी जो उनके परलोकगमन के सेकड़ों वर्षों बाद भी बिश्नोई समाज के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी २९ नियमों के रूप में उनकी शिक्षाओं को जाम्भानी जीवन दर्शन के रूप में आत्मसात किये हुए है I सोमवती अमावस्या को सनातन संस्कृति में बहुत ही दुर्लभ संयोग माना जाता है इसलिए आज शहीदी स्थल पर श्रधालुओं की सख्या भी थोड़ी ज्यादा थी I शहीदी स्थल पर बने मंदिर में जाम्भानी जीवन दर्शन के अनुसार शबदवाणी के १२० शब्दों के उच्चारण द्वारा संतों के सानिध्य में यज्ञ का आयोजन हो रहा था I यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद संतों द्वारा गुरु जाम्भोजी द्वारा स्थापित पाहल देने की परम्परा का पालन किया जाता है जिसमें आये हुए तमाम श्रद्धालु शामिल होते है I खेजड़ी, नीम, जाल बेरी तथा कई अन्य किस्मों के हरे भरे पेड इस पवित्र खेजड़ली धाम की शौभा में चार चाँद लगाते है I इस शहीदी स्थल पर शहीदों की याद में हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष दसमी को विशाल सामाजिक मेले का आयोजन होता है I प्रति मास अमावस्या जैसे अवसरों पर भी देश और राज्य भर के दूरदराज के इलाकों से बिश्नोई समाज के लोग यज्ञ में आहुति देने के लिए आते है I शहीदी स्थल पर एक शौभायमान तथा विशाल मंदिर का निर्माण कार्य चल रहा है जिसकी प्राणप्रतिष्ठा अभी हुयी नही हैI

दरअसल इस धाम की कहानी बहुत ही मार्मिक और पीड़ादायीनी है I पेड़ों और वन्यजीवों के सरक्षण के क्षेत्र में राजस्थान के बिश्नोई समाज की पहचान यूं ही रातों रात नही बन पाई है बल्कि प्रुकृतिप्रेम की बलिदान गाथा इसी गाव से शुरू होती है I दरअसल राजस्थान के इस रेगिस्तानी क्षेत्र को हराभरा रखने के लिए बिश्नोई समाज की १५ वी सदी में स्थापना के बाद बिश्नोई लोगों ने आज तक सतत रूप से बलिदान दिए है I आज पर्यावरण सरक्षण के लिए अनूठी पहचान रखने वाला ये पवित्र खेजड़ली धाम आज से सदियों पहले भी हराभरा और सम्पन गाव था जिसमें बिश्नोई समाज के लोग अपने खेतों में हरे भरे पेड़ों को काटते नही थे. जोधपुर राज्य के अधीन आने वाले इस खेजड़ली गाव के बिश्नोई लोगों का पृकृति प्रेम उन हरे भरे विशाल खेजड़ी (Prosopis cineraria) के पेड़ों की हरियाली से सहज ही दिखाई पड़ता था I जोधपुर के तत्कालीन राजा अभय सिंह को अपने किले में चल रहे निर्माण कार्यों के लिए इस्तेमाल हो रहे चुने को जलाने के लिए लकड़ियों की आवश्यकता की पूर्ति हेतु इस गावं के खेजड़ी के पेड़ों को काटने का हुकुम दे दिया और कारण स्वरुप जोधपुर दरबार के सैनिकों ने दीवान गिरधर दास भंडारी के नेतृत्व में इस गावं में खेजड़ी के पेड़ काटने के लिए डेरा दाल दिया था बिश्नोई समाज के लोगों ने अपने खेतों के हरे भरे पेड़ों को नही काटने के लिए राजा के सैनिकों को विनती और प्रार्थनाएँ की लेकिन राजा के सैनिक पेड़ों को काटने पर आमादा थे I हरे भरे पेड़ों को अपने जीवन से भी कीमती बताकर अमृता देवी बिश्नोई ने “सिर सान्टें रुख रहें तो भी सस्तों जाण” कहकर खेजड़ी के पेड़ से चिपक गयी लेकिन राजा की सेना ने 12 सितम्बर 1730 को देखते ही देखते अमृता देवी बिश्नोई समेत पेड़ों से चिपके हुए ३६३ बिश्नोई महिलाओं, बुजुर्गों तथा बच्चों को पेड़ों के साथ ही काट दिया I मानव इतिहास की ये कहानी पुराने दौर में सामंती मिथ्या अहंकार और पृकृति लिए के लिए निस्वार्थ त्याग के बीच हुए अवांषित संघर्ष में मानवीय मूल्यों को हुए नुकसान की कहानी है I लगभग तीन सौ साल पहले पर्यावरण सरक्षण के लिए दी गयी सामूहिक शहादत को इस गाव के लोग बड़े प्रेम और लगाव से गर्व के साथ आज भी याद करते है और शहीदों की याद में हर अमवस्या को यज्ञ किया जाता है I आज बिश्नोई समाज के उन असाधारण बलिदानियों का नाम मानव इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है I 

समय के साथ सामंती दौर तो बीत गया और देश में लोकतत्र की स्थापना हो गयी लेकिन ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि मानव इतिहास की इस अनूठी मिसाल को भी लोकतात्रिक व्यवस्था ने राजनेतिक कारणों से वो सम्मान नही मिलने दिया है जिसका शहीदी स्थल पवित्र खेजड़ली धाम, जोधपुर हकदार है हालाकि खेजड़ली बलिदान को पहचान दिलाने के लिए भारत सरकार द्वारा पर्यावरण सरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वालों को हर साल अमृतादेवी बिश्नोई के नाम से सम्मानित जरुर किया जाता है आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा भले ही मानवता को राह दिखाने वाले बलिदानियों की इस शौर्य गाथा को विश्व पटल पर उचित स्थान दिलाने की प्रयाप्त कोशिशें भले ही नही की गयी हों  प्रुक्रुतिप्रेमी समाज ने अपनी गौरवशाली इतिहास को संजोये रखने के लिए भरपूर कोशिशें की है I 

बिश्नोई समाज के पूर्वजों ने पेड़ों के लिए कुर्बान होकर पूरी मानवता को एक ऐसी जिम्मेदारी दे दी है जिसे निभाना आज हर मानव मात्र का पहला फर्ज है I हमें आज की आधुनिकता की अन्धी दौड़ में उन महान ३६३ बलिदानियों के पृकृति के प्रति निस्वार्थ त्याग को भूलना नही है बल्कि मानवता की आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करने के लिए आज हमें हर वो कदम उठाना है जो एक कृतज्ञ समाज को उठाना चाहिए I ३६३ शहीदों की इस बलिदानी भूमि पर पूरा दिन बिताने के बाद भविष्य में फिर दुबारा लौटकर आने के प्रण के साथ हमने दिन ढलने से पहले अपने घर की और प्रस्थान प्रारंभ किया. मुझे विश्वास है कि आप भी अपना कीमती वक्त निकालकर इस शहीद स्थली पर पहुंचकर उन शहीदों की याद में होने वाले यज्ञ में आहुति जरुर देना चाहेंगे.

आदर सहित आपका अपना

प्रकाश बिश्नोई

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