बेलगाम नौकरशाही
भारत के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल ने नौकरशाही को देश का "Steel Frame कहा था । लेकिन समय के साथ वो "Steel Frame" अब "Stale Frame" में तब्दील हो गया है। आजादी के साथ ही जनहित में नौकरशाही को राज्य की शक्तियों से एंपावर किया गया था ताकि लोकतंत्र में वे नींव का पत्थर बनकर राज्य के प्रतिनिधि के रूप में जनता के प्रति अपना संवैधानिक दायित्व निभा सकें। नौकरशाही के संदर्भ में आजादी के साथ ही हमारे नेताओं की पहली गलती ये थी कि उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के लिए काम करने वाले नौकरशाहों को ही पब्लिक सर्विस के लिए जारी रखा था। क्या अंग्रेजी हुकूमत के लिए काम करने वाले नौकरशाह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए उपयुक्त थे। मुझे लगता है कि किसी उदंड इन्सान को एक दिन में नही सुधार सकते है तो पूरी की पूरी इंपीरियल सर्विस की जमात जो राजतन्त्र के लिए काम करती थीं उसे हमारे लोकतन्त्र के लिए हमारे उन दिनों के नेताओं द्वारा कैसे उचित मान लिया गया था? ब्रिटिश शासन में राजा के लिए जवाबदेह नौकरशाही लोकतन्त्र के सर्वथा अनुपयुक्त ही थी । ब्रिटिश हुकूमत का डंडा लेकर चलने वाले नौकरशाह आजाद भारत में पेन लेकर जनता की सेवा कैसे कर संकेंगे? इस पहलू पर शायद हमारे उस काल के नेताओं ने विचार भी नहीं किया था। उसी के चलते भारत की वर्तमान नौकरशाही में भी ब्रिटिश कोलोनियल हैंगओवर आज भी जारी है और नौकरशाही लोकतन्त्र में जनता के प्रति कभी जवाबदेह नहीं बन पाई । आज तो हालात ऐसे है कि हमारी बेहद ताकतवर नौकरशाही "बेलगाम" हो चुकी है और आम जनता को किसी कीड़े मकोड़े की तरह कभी भी कुचल देती है। आप चिंतन करें कि क्या 140 करोड़ नागरिकों के देश की ब्यूरोक्रेसी में सिर्फ कुछेक परिवारों की ही हिस्सेदारी पीढी दर पीढी होनी चाहिए? आज भारत में "नौकरशाही" चंद नौकरशाह परिवारों की पारिवारिक इंडस्ट्री बन कर रह गई है ।
आज़ाद भारत में राज्य के नौकरशाहों की नियुक्ति आज भी अंग्रेजों द्वारा संचालित संस्था द्वारा ही की जा रही है। इसके अलावा अवांशित राजनीतिक हस्तक्षेप और गैर जिम्मेदाराना राजनीतिक रवैए के चलते राज्य की लगभग तमाम संस्थाओं की constitutional mortality या तो खत्म हो चुकी है या फिर खत्म होने की कगार पर है। नतीजन ऐसे ऐसे नौकरशाह राज्य द्वारा जनता पर थोप दिए जाते हैं जो सिर्फ पदों का दुरूपयोग करके अरबों रुपए बनाने के लिए सरकारी नौकरी में आते हैं। देश की नौकरशाही में रिफॉर्म सिर्फ भारत की जनता द्वारा वर्तमान नौकरशाही के स्वरूप पर सवाल उठाए जाने से ही संभव है। भारत की सरकारों को चाहिए कि वह अपने नौकरशाहो को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के प्रयास करे। लेकिन ऐसे प्रयास सरकार में किसी भी स्तर पर होते हुए कभी नजर नहीं आए है। आम जनता को दरअसल राजनीति में जड़ें जमाए हुए नेताओं से मुश्किल सवाल पूछे जाने चाहिए थे लेकिन दुर्भाग्य से आम जनता राजनीतिक दलों में बंट चुकी है और राजनीतिक दल को राष्ट्र से बड़ा समझ बैठी है। आज जनता इन राजनितिक दलों से सवाल पूछने के बजाय नेताओं की भक्ती में लीन है। ऐसे हालातों में भला बड़े पैमाने पर रिफॉर्म कौन करेगा? बेलगाम हो रही नौकरशाही में रिफार्म कैसे संभव होंगे? नेताओं ने राजनीतिक को व्यवसाय समझ लिया है और इस व्यवसाय में नौकरशाही इन नेताओं का एक्टिव पार्टनर बन चुकी है।
आजकल पूजा खेड़कर का नाम चर्चा में आया है। इनसे पहले भी अनेकों नौकरशाह अपने self serving attitude के चलते चर्चा में आए है लेकिन कभी किसी नौकरशाह के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई "राज्य " द्वारा नहीं की गई है। ट्रेंड तो कहते है कि ऐसे नौकरशाहों के अपने "गॉडफादर" होते हैं जो इन्हे हर बार बचा ही लेते हैं। भारत की आम जनता में "लोकतंत्र" शब्द की जब तक समझ विकसित होगी तब तक ऐसे नौकरशाह लोकतंत्र और इसके नागरिकों को अपने जूते की नोक पर ही चलाते रहेंगे, भारत हमेशा से ही लुटता ही रहा है। कभी तुर्क तो कभी मंगोल तो कभी अरब, कभी मुगल तो कभी अंग्रेज भारत को लूटते रहे थे। आज कहने को तो देश आज़ाद है लेकिन लूट अभी भी जारी है। एक हजार साल की गुलामी के दौर ने भारत की जनता का बहुत कुछ छीन लिया है लेकिन इतना खोकर भी भारतीय जनता आज भी गहरी नींद में सो रही है और जनता के लिए नियुक्त नौकर जनता को लूट कर धन कुबैर बन रहे हैं। लगता है भारत के किस्मत में आजादी तो लिखी थी लेकिन सजग नागरिको का समाज उसके किस्मत में नहीं है।
प्रकाश बिश्नोई